श्री सत्यनारायण लाल द्वारा रचित दोहा सिखावन ।
इन दोहो में कवि ने हमें नीति की बातें बताई हैं तथा इन पर चलने की सीख दी है कवि के अनुसार यदि हम अपने आचरण में उतार कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं ।
(1) का होगे के रात हे, घपटे हे अँधियार।
आसा अउ बिसवास के, चल तैं दीया बार।
शब्दार्थ
- का होगे = क्या हो गया,
- घपटे हे = सघनता के साथ छाया है,
- आसा = आशा,
- अउ = और,
- बिसवास = विश्वास,
- दीया-बार = दीपक जलाओ।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि क्या हआ जो रात है और चारों ओर घना अन्धकार छाया हआ है। ऐसे कठिन समय में भी तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए और आशा और विश्वास का दीपक जलाना चाहिए। अर्थात् अपने मन में कार्य पूर्ण होने की आशा और विश्वास बनाए रखना चाहिए।
(2) एके अवगुन सौ गुन ल, मिलखी मारत खाय।
गुरतुर गुन वाला सुवा, लोभ करे फंद जाय।
शब्दार्थ
- मिलखी मारत = पलक झपकते ही,
- गुरतुर = मीठा,
- सुवा = तोता,
- लोभ = लालच,
- फंद जाय = फंस जाता है।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि एक अवगुण पलक झपकते ही सौ गुणों को नष्ट कर देता है। जैसे मीठी बोली बोलने वाला तोता लालच में आकर शिकारी के जाल में फंस जाता है। अतः हमें अवगणों से दूर रहना चाहिए।
(3) मीठ-लबारी बोल के, लबरा पाये मान।
पन सतवंता ह सत बर, हाँसत तजे परान।
शब्दार्थ
- लबारी = झूठ,
- लबरा = झूठा,
- मान-सम्मान = इज्जत,
- पन = परन्तु,
- सतवंता = सत्यवादी,
- सत वर = सच के लिए,
- हाँसत = हँसते हुए,
- परान = प्राण।
व्याख्या – झूठा मनुष्य भले ही मीठा झूठ बोलकर सम्मान प्राप्त कर लेता है किन्तु सत्यवादी व्यक्ति तो सत्य की रक्षा के लिये हँसते हुए अपने प्राणों का त्याग कर देता है। वास्तव में वही सच्चे सम्मान का अधिकारी है।
(4) घाम-छाँव के खेल तो, होवत रहिथे रोज।
एखर संसो छोड़ के, रद्दा नवाँ तै खोज।
शब्दार्थ
- घाम = धूप,
- होवत रहिथे = होता रहता है,
- एखर = इसकी,
- संसो = चिंता,
- रद्दा = रास्ता,
- नवाँ = नया,
- तै = तुम,
- खोज = खोजो।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि धूप और छाया तो रोज ही आती-जाती रहती है, परन्तु इनकी चिंता छोडकर तम्हें नए रास्ते की तलाश करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जीवन में द:ख और सख तो आते ही रहते हैं पर मनुष्य को इनके फेर में न पड़कर आगे बढ़ने के लिए सदैव प्रयास करते रहना चाहिए।
(5) लाखन-लाखन रंग के, फुलथे फूल मितान।
महर-महर जे नइ करे, फूल अबिरथा जान।
शब्दार्थ
- लाखन-लाखन = लाखों-लाख,
- फुलथे = खिलता है,
- मितान = मित्र,
- महर-महर = सुगंध से गमकना,
- जे = जो, अबिरथा = बेकार।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि मित्रो, संसार में लाखों-लाख रंगों के फूल खिलते हैं किन्तु जो अपनी सुगन्धि नहीं बिखेरता उसे व्यर्थ ही जानो। भाव यह है कि गुणहीन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है।
(6) सब ला देथे फल-फर, सब ला देथे छाँव।
अइसन दानी पेड़ के, परो निहरके पाँव।
शब्दार्थ
- सब ला = सभी को,
- फर = फल,
- देथे = देता है,
- अइसन = ऐसे,
- परो निहर के पाँव = झुककर पैर छुओ।
व्याख्या-कवि कहते हैं कि जो वृक्ष सभी को फूल और फल प्रदान करता है, सभी को छाया देता है, ऐसे दानी पेड़ को झुककर प्रणाम करना चाहिए। आशय यह है कि परोपकारी व्यक्ति का सदैव सम्मान करना चाहिए।
(7) तै किताब के संग बद, गंगाबारू, मीत।
एकरे बल म दुनिया ल, पक्का लेबे जीत।
शब्दार्थ
- तँय = तुम, वदना = अनुष्ठान के साथ मानना,
- गंगा बारू = गंगा की रेत,
- मीत = मित्र,
- एकरे = इसके,
- लेबे = लोगे।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि तुम किताबों के साथ मित्रता का सम्बन्ध जोड़ लो। इन किताबों में भरे ज्ञान के भण्डार के बल पर तुम एक दिन संसार पर विजय प्राप्त कर लोगे। अर्थात् पुस्तकों को पढ़कर सफलता प्राप्त कर सकते हो।
(8) ठाड़े-ठाड़े नइ मिले, ठिहा-ठिकाना सार।
समुंद कोत नँदिया चले, दउड़त पल्ला मार।
शब्दार्थ
- ठाड़े-ठाड़े = एक स्थान पर खड़े रहकर,
- नइ = नहीं,
- ठिहा-ठिकाना = मंजिल,
- सार = मुख्य,
- समुंद = समुद्र,
- कोत = तरफ,
- दउड़त = दौड़ते हुए,
- पल्ला मार = तेज गति के साथ।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि एक स्थान पर खड़े रहने पर मनुष्य को उसकी मंजिल प्राप्त नहीं होती। नदी भी अपनी मंजिल समुद्र तक पहुँचने के लिए तेज गति से दौड़ती है। आशय यह है कि मनुष्य को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।
(9) हे उछाह मन म कहूँ, पाये बर कुछु ज्ञान।
का मनखे ? चाँटी घलो, पाही गुरु के मान।
शब्दार्थ
- उछाह = उत्साह, कहूँ = कहीं,
- पाये बर = पाने के लिए,
- मनखे = मनुष्य,
- चाँटी = चींटी,
- घलो = भी,
- पाही = पाएगी।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि यदि मन में ज्ञान प्राप्त करने का उत्साह है तो मनुष्य ही क्या नन्हीं-सी चींटी भी गुरु का सम्मान प्राप्त कर सकती है। आशय यह है कि ज्ञानी चाहे कोई भी हो, सभी उसका सम्मान करते हैं।
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